समाधि परमहंस योगानन्द
अदृश्य हो गये प्रकाश और छाया के पर्दे सारे,
दु:ख का लवलेश भी कहीं नहीं रहा,
मिट गये क्षणभंगुर सुखों के बोध सारे,
नष्ट हो गयी इन्द्रियों की धुँधली मृग मरीचिका।
प्रेम, घृणा, स्वास्थ्य, रोग, जन्म, मृत्यु:
द्वैत के पर्दे पर खेलती ये सारी मिथ्या परछाइयाँ लुप्त हो गयीं।
माया का तूफान थम गया
गहन अंतर्ज्ञान की जादुई छड़ी से।
वर्तमान, भूत, भविष्य, कुछ भी नहीं रहा अब मेरे लिये,
अब तो केवल मैं ही मैं हूँ सदा-सर्वदा फैलता सबमें, सब ओर।
ग्रह, तारे, निहारिकापुंज, पृथ्वी,
महाप्रलय के ज्वालामुखियों के विस्फोट,
सृष्टि की ढलाई की धधकती भट्ठी,
नीरव क्ष-किरणों के हिमनद, ज्वलन्त विद्युत् अणुओं की बाढ़,
अतीत में हुए, वर्तमान में जी रहे, भविष्य में होने वाले
सब मनुष्यों के विचार,
घास तक का प्रत्येक पत्ता, मैं स्वयं, समस्त मानवजाति,
सृष्टि का प्रत्येक कण,
काम, क्रोध, लोभ, अच्छा, बुरा, मोक्ष, मुक्ति,
इन सब को मैंने निगल लिया
और ये सब मेरे एकमात्र विराट् अस्तित्व के रुधिर का महासागर बन गये।
भीतर ही भीतर सुलगते आनन्द ने, जो ध्यान में प्राय: सुलग उठता,
मेरे अश्रुपूर्ण नेत्रों को रुद्ध कर दिया,
और भड़क उठा परमानन्द के शोलों के रूप में,
और स्वाहा कर लिया मेरे अश्रुओं को, मेरे शरीर को, मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को।
ब्रह्म मुझमें समा गया, मैं ब्रह्म में समा गया,
ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय सब एक हो गये!
शांत, अखंड रोमांच, सदा के लिये जीती-जागती नित्य नवीन शांति। समस्त आशा और कल्पनाओं से परे आनन्द देने वाला समाधि का परमानन्द!
नहीं यह कोई अचेत अवस्था
या मानसिक बेहोशी जिसमें से स्वेच्छा से लौटा न जा सके,
बल्कि समाधि तो मेरी चेतना के विस्तार को
मर्त्य देह की सीमाओं से परे ले जाती है
अनंतता की दूरतम परिधि तक
जहाँ ब्रह्मसागर बना मैं
अपने छोटे-से अहं रूप को अपने में ही तैरता देखता हूँ।
अणुओं की सरसराहट सुनायी देती है,
निस्तेज पृथ्वी, पहाड़-पर्वत, घाटियाँ,
पल भर में सब गल कर तरल बन गये!
सागर-प्रवाह नीहारिकाओं की धुन्ध में बदल गये!
इस धुन्ध पर प्रणव की फुंकार आयी,
और उसने उस धुन्ध के तुषारों पर छाये पर्दे उठा दिये,
ज्योतिर्मय अणु-परमाणुओं के सागर-महासागर
दृष्टि के सामने अनावृत हो गये,
जब तक ओम् के ब्रह्मनाद से सब स्थूल तर आलोक
आखिर सर्वव्याप्त परमानन्द की शाश्वत किरणों में विलीन न हो गये। आनन्द से मैं आया था, आनन्द के लिये मैं जीता हूँ,
पवित्र आनन्द में मैं विलीन हो जाता हूँ।
मन का सागर बना मैं सृष्टि की सारी तरंगों को पीता हूँ।
उठ गये चार पर्दे जड़, तरल, वायु एवं प्रकाश के।
कण-कण में विद्यमान मैं अपने विराट् स्वरूप में विलीन होता हूँ!
चली गयी सदा के लिये मर्त्य स्मृति की अस्थिर, फरफराती परछाइयाँ;
निरभ्र है मेरे मन का आकाश अब — नीचे, ऊपर आगे-पीछे;
अनंतता और मैं एकरूप बनी एक ही किरण हैं अब।
हँसी का एक नन्हा-सा बुलबुला मैं;
अब बन गया हूँ सागर हर्षोल्लास का स्वयं।
Very beautiful poem written by Paramahansa Yogananda in his autobiography in chapter 14