Monday, September 7, 2020

Samadhi By Parmahansa Yogananda in Hindi

समाधि  परमहंस योगानन्द

अदृश्य हो गये प्रकाश और छाया के पर्दे सारे, 
दु:ख का लवलेश भी कहीं नहीं रहा, 
मिट गये क्षणभंगुर सुखों के बोध सारे,
 नष्ट हो गयी इन्द्रियों की धुँधली मृग मरीचिका।
 प्रेम, घृणा, स्वास्थ्य, रोग, जन्म, मृत्यु: 
द्वैत के पर्दे पर खेलती ये सारी मिथ्या परछाइयाँ लुप्त हो गयीं।
माया का तूफान थम गया 
गहन अंतर्ज्ञान की जादुई छड़ी से। 
वर्तमान, भूत, भविष्य, कुछ भी नहीं रहा अब मेरे लिये, 
अब तो केवल मैं ही मैं हूँ सदा-सर्वदा फैलता सबमें, सब ओर। 
ग्रह, तारे, निहारिकापुंज, पृथ्वी, 
महाप्रलय के ज्वालामुखियों के विस्फोट, 
सृष्टि की ढलाई की धधकती भट्ठी, 
नीरव क्ष-किरणों के हिमनद, ज्वलन्त विद्युत् अणुओं की बाढ़, 
अतीत में हुए, वर्तमान में जी रहे, भविष्य में होने वाले
 सब मनुष्यों के विचार, 
घास तक का प्रत्येक पत्ता, मैं स्वयं, समस्त मानवजाति, 
सृष्टि का प्रत्येक कण,
काम, क्रोध, लोभ, अच्छा, बुरा, मोक्ष, मुक्ति, 
इन सब को मैंने निगल लिया 
और ये सब मेरे एकमात्र विराट् अस्तित्व के रुधिर का महासागर बन गये। 
भीतर ही भीतर सुलगते आनन्द ने, जो ध्यान में प्राय: सुलग उठता, 
मेरे अश्रुपूर्ण नेत्रों को रुद्ध कर दिया, 
और भड़क उठा परमानन्द के शोलों के रूप में, 
और स्वाहा कर लिया मेरे अश्रुओं को, मेरे शरीर को, मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को। 
ब्रह्म मुझमें समा गया, मैं ब्रह्म में समा गया, 
ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय सब एक हो गये! 
शांत, अखंड रोमांच, सदा के लिये जीती-जागती नित्य नवीन शांति। समस्त आशा और कल्पनाओं से परे आनन्द देने वाला समाधि का परमानन्द! 
नहीं यह कोई अचेत अवस्था 
या मानसिक बेहोशी जिसमें से स्वेच्छा से लौटा न जा सके, 
बल्कि समाधि तो मेरी चेतना के विस्तार को 
मर्त्य देह की सीमाओं से परे ले जाती है 
अनंतता की दूरतम परिधि तक 
जहाँ ब्रह्मसागर बना मैं 
अपने छोटे-से अहं रूप को अपने में ही तैरता देखता हूँ। 
अणुओं की सरसराहट सुनायी देती है, 
निस्तेज पृथ्वी, पहाड़-पर्वत, घाटियाँ, 
पल भर में सब गल कर तरल बन गये! 
सागर-प्रवाह नीहारिकाओं की धुन्ध में बदल गये! 
इस धुन्ध पर प्रणव की फुंकार आयी, 
और उसने उस धुन्ध के तुषारों पर छाये पर्दे उठा दिये, 
ज्योतिर्मय अणु-परमाणुओं के सागर-महासागर 
दृष्टि के सामने अनावृत हो गये, 
जब तक ओम् के ब्रह्मनाद से सब स्थूल तर आलोक 
आखिर सर्वव्याप्त परमानन्द की शाश्वत किरणों में विलीन न हो गये। आनन्द से मैं आया था, आनन्द के लिये मैं जीता हूँ, 
पवित्र आनन्द में मैं विलीन हो जाता हूँ। 
मन का सागर बना मैं सृष्टि की सारी तरंगों को पीता हूँ। 
उठ गये चार पर्दे जड़, तरल, वायु एवं प्रकाश के। 
कण-कण में विद्यमान मैं अपने विराट् स्वरूप में विलीन होता हूँ! 
चली गयी सदा के लिये मर्त्य स्मृति की अस्थिर, फरफराती परछाइयाँ;
निरभ्र है मेरे मन का आकाश अब — नीचे, ऊपर आगे-पीछे; 
अनंतता और मैं एकरूप बनी एक ही किरण हैं अब। 
हँसी का एक नन्हा-सा बुलबुला मैं; 
अब बन गया हूँ सागर हर्षोल्लास का स्वयं।


Very beautiful poem written by Paramahansa Yogananda in his autobiography in chapter 14


Sunday, August 30, 2020

Samadhi Poem By Parmahansa Yogananda

Samadhi, by Paramahansa Yogananda

Vanished the veils of light and shade,
Lifted every vapor of sorrow,
Sailed away all dawns of fleeting joy,
Gone the dim sensory mirage.
Love, hate, health, disease, life, death:
Perished these false shadows on the screen of duality.
The storm of maya stilled
By magic wand of intuition deep.
But ever-present, all-flowing I, I, everywhere.
Planets, stars, stardust, earth,
Volcanic bursts of doomsday cataclysms,
Creation’s molding furnace,
Glaciers of silent X-rays, burning electron floods,
Thoughts of all men, past, present, to come,
Every blade of grass, myself, mankind,
Each particle of universal dust,
Anger, greed, good, bad, salvation, lust,
I swallowed, transmuted all
Into a vast ocean of blood of my own one Being.
Smoldering joy, oft-puffed by meditation
Blinding my tearful eyes,
Burst into immortal flames of bliss,
Consumed my tears, my frame, my all.
Thou art I, I am Thou,
Knowing, Knower, Known, as One!
Tranquilled, unbroken thrill, eternally living, ever-new peace.
Enjoyable beyond imagination of expectancy, samadhi bliss!
Not an unconscious state
Or mental chloroform without willful return,
Samadhi but extends my conscious realm
Beyond the limits of the mortal frame
To farthest boundary of eternity
Where I, the Cosmic Sea,
Watch the little ego floating in Me.
Mobile murmurs of atoms are heard,
The dark earth, mountains, vales, lo! molten liquid!
Flowing seas change into vapors of nebulae!
Aum blows upon vapors, opening wondrously their veils,
Oceans stand revealed, shining electrons,
Till, at the last sound of the cosmic drum,
Vanish the grosser lights into eternal rays
Of all-pervading bliss.
From joy I came, for joy I live, in sacred joy I melt.
Ocean of mind, I drink all creation’s waves.
Four veils of solid, liquid, vapor, light,
Lift aright.
I, in everything, enters the Great Myself.
Gone forever: fitful, flickering shadows of mortal memory;
Spotless is my mental sky, below, ahead, and high above;
Eternity and I, one united ray.
A tiny bubble of laughter, I
Am become the Sea of Mirth Itself.

Tuesday, May 26, 2020

Missing My School Days.


A DAe maY cuM wen v'll wak thru d larGgE GaTe of Our SkuL... waLkinG thRu tHat lOnelY whiTe paTH coVereD wiD drY leaVeS... wER sMilEs wEr sHareD..lOve ws mde... heArtS brOkeN nd tEarS sPillEd.. TheN wEn v'll sTep inTo d loNelY old cLasRum,nLy meMoriEs vIl bE tHerE fOr coMpaNy... We maY sEe oUrseLf oN eVery benCh...laUghIng nd chaTtIng wId oUr friEnDS... tHen We wiLL rEalIze That yeaRS aGo.. "My heAven ws herE" n thOse guD dAyS wiLL neVa cuM bAk aGn.. we"ll rEmeMbeR sUm oF oUr friEndS At thT tYm Nd dRp A teAr foR tHem.. tHat's LIFE. . deDicATed 2 All mY deAr frIENds... MisS My SkuL DaYs 

Margaret S.N English School 
Siliguri Westbengal

Samadhi By Parmahansa Yogananda in Hindi

समाधि  परमहंस योगानन्द अदृश्य हो गये प्रकाश और छाया के पर्दे सारे,  दु:ख का लवलेश भी कहीं नहीं रहा,  मिट गये क्षणभंगुर सुखों के ...